डॉ. जितेन्द्र तिवारी
श्लिष्टा क्रिया कस्यचिदात्मसंस्था
संक्रान्तिरन्यस्य विशेषयुक्ता ।
संक्रान्तिरन्यस्य विशेषयुक्ता ।
यस्योभयं साधु स शिक्षकाणां
धुरिप्रतिष्ठा पयितव्य एव ।।
धुरिप्रतिष्ठा पयितव्य एव ।।
शिक्षा शब्द से तात्पर्य सीखना माना जाता है ,
प्रारम्भ से ही इसे ज्ञान और विद्या के रूप में भी लिया जाता रहा । शिक्षा का
तात्पर्य व्यक्ति में उन उदात्त आत्म गुणों को विकसित करना है, जिससे वह पूर्ण
मानव के रूप में विकसित हो सके ।
प्राचीन काल
से ही शिक्षा के दो ध्रुव देखने को मिलते
हैं – प्रथम वह शिक्षा जो सामान्य शिक्षा कहलाती है , इसके अन्तर्गत बालक को अपने
जीवन यापन के लिये उस स्तर तक की शिक्षा प्रदान की जाती थी जिससे वह अपने जीवन संचारों के साथ-साथ भरण
पोषण में समर्थ हो सके , इस शिक्षा का स्वरूप सामान्य विद्यालयी शिक्षा के रूप में
था ।
शिक्षा का
दूसरा स्वरूप उच्च शिक्षा का था । इस शिक्षा का मूलभूत उद्देश्य शैक्षिकोन्नयन माना
गया था , प्रारम्भ से यह मान्यता रही है कि ज्ञान कभी पूर्ण नही होता । ‘ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः’ अतः निरन्तर व्यक्ति को उच्च ज्ञान की ओर ले
जाता है । कोठारी कमीशन की रिपोर्ट में भी शिक्षक शिक्षा के सन्दर्भ में कहा गया
है कि-
“Investment
in teacher education can yield very rich dividends, because the financial
resources required are small when measured against resulting improvements in
the education of millions.”
संस्कृत शिक्षक शिक्षा—
इससे अभिप्राय यह है कि मध्यप्रदेश के उच्च शिक्षा विभाग में संस्कृत के शिक्षकों
के द्वारा कितनी गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा प्रदान की जा रही है , और यहाँ पर विचारणीय
तथ्य यह भी है कि संस्कृत शिक्षक
शिक्षा में जो संस्कृत के अध्यापक शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त किये हैं वह कितना
गुणवत्ता पूर्ण है । शिक्षक शिक्षा के दो
पक्ष हैं – प्रथम- व्यक्ति को प्रशिक्षण संस्था में प्रशिक्षण देकर शिक्षक के रूप
सें तैयार किया जाता है । द्वितीय-शिक्षक को सेवाकाल में शिक्षा सम्बन्धी नवीन
तथ्यों, विधियों, सिद्धान्तों आदिसे परिचित कराके , उसकी व्यावसायिक दक्षता एवं
कुशलता में वृद्धि की जाती है शिक्षा के इसी पक्ष को ‘सेवा कालीन संस्कृत शिक्षक शिक्षा’ की संज्ञा
दी गयी है । मध्यप्रदेश के उच्च शिक्षा
विभाग में अध्ययन और अध्यापन का माध्यम हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू एवं संस्कृत है ,
भाषा के विकास के सन्दर्भ में संस्कृत भाषा का कितना योगदान है । मध्यप्रदेश में
संस्कृत का विश्वविद्यालय एक ही है जिसका नाम- ‘महर्षि
पाणिनि संस्कृत विश्वविद्यालय उज्जैन म. प्र.’ परन्तु यहां
पर अभी शिक्षक-शिक्षा में अध्ययन-अध्यापन प्रारम्भ नहीं हुआ है । मध्यप्रदेश के सामान्य विश्वविद्यालयों में
छात्राध्यापक संस्कृत विषय लेते तो हैं पर सही तरीके से अध्यापन की व्यवस्था नहीं
है । इस शोध पत्र के माध्यम से
निम्नांकित बिन्दुओं को आधार मानकर विस्तृत रूप से चर्चा की जायेगी –
संस्कृत शिक्षकों की अध्यापन प्रक्रिया –
संस्कृत शिक्षकों की अध्यापन प्रक्रिया –
इससे अभिप्राय यह है कि
संस्कृत के शिक्षक अपने अध्यापन प्रक्रिया
में किस शैली से , किस विधि के माध्यम से , तथा किन उपकरणों का उपयोग करते हुए
अध्यापन कार्य करा रहें हैं । प्रायः संस्कृत
के अध्यापक व्याख्यान विधि के ही माध्यम से पढ़ाते हैं । इसमें कुछ नया करने की
आवश्यकता है कम्प्यूटर के माद्यम से भी
यदि अध्यापन कराया जाय तो छात्र रुचि पूर्वक शिक्षा ग्रहण करेंगें । प्रोजेक्टर के
माध्यम से भी अध्यापन कराया जा सकता है ।
प्रायोगिक एवं व्यावहारिक पक्ष छात्रों के विशेष सन्दर्भ में—
प्रायोगिक एवं व्यावहारिक पक्ष छात्रों के विशेष सन्दर्भ में—
प्रायोगिक एवं व्यावहारिक पक्ष से
तात्पर्य यह है कि छात्रों के प्रायोगिक ज्ञान पर कितना बल दिया जा रहा है , छात्रों
को सिखाने के लिए प्रायोगिक विधियों का अधिक उपयोग करना चाहिए ।
·
पाठ्यसहगामी क्रियाओं का संस्कृत निष्ठ आयोजन—
उच्च शिक्षा विभाग के
माध्यम से व महाविद्यालय के माध्यम से
पाठ्यसहगामी क्रियाओं का आयोजन संस्कृत निष्ठ होना चाहिए , इससे छात्र
संस्कृत सीखने में रुचि भी लेगें और संस्कृत का वातावरण भी अच्छा तैयार होगा । यदि संस्कृत निष्ठ पाठ्यसहगामी क्रियाओं का
आयोजन किया जायेगा तो संस्कृत भाषा की छवि
अच्छी होगी ।
·
संस्कृत सम्भाषण शिविरों का
आयोजन—
मध्यप्रदेश के उच्च शिक्षा में संस्कृत शिक्षक शिक्षा में गुणवत्ता
सम्बर्धन हेतु संस्कृत निष्ठ संस्कृत सम्भाषण शिविरों का आयोजन किया जाना चाहिए ।
सम्भाषण शिविर से जहां संस्कृत का प्रचार-प्रसार होगा वहीं संस्कृत बोलने
वालों में भी वृद्धि होगी । संस्कृत
सम्भाषण शिविरों के आयोजन में राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान नई दिल्ली एवं संस्कृत
भारती का विशिष्ट योगदान है ।
· तकनीकी का उपयोग—
आज के
आधुनिक समय में उच्च शिक्षा में गुणवत्ता सम्बर्धन हेतु तकनीकी का उपयोग
अत्यावश्यक है । तकनीकी का उपयोग का उपयोग
करके संस्कृत उच्च शिक्षा मे एक विशिष्ट प्रकार की क्रान्ति लायी जा सकती है ।
संस्कृत शिक्षक शिक्षा
में गुणवत्ता संबर्धन की समस्यायें—
1. सिद्धान्त व व्यवहार में पृथकता-- प्रशिक्षण-काल में छात्राध्यापकों
को जिन सिद्धान्तों का ज्ञान प्रदान किया जाता है , उनका विद्यालय में कार्य करने
की वास्तविक परिस्थितियों से कोई सम्बन्ध नहीं होता है । दूसरे शब्दों में जिन
परिस्थितियों में वे अपने विद्यालयों में कार्य करते हैं , उनमें वे प्रशिक्षण
संस्थाओं में सीखे जाने वाले शैक्षणिक सिद्धान्तों को व्यवहार मे कार्यान्वित नहीं
कर पाते ।
2.
शिक्षक शिक्षा का निम्न स्तर—शिक्षक-शिक्षा के कार्यक्रम का सार-तत्व उसका गुण या श्रेष्ठता (Quality) है । यदि उसमें श्रेष्ठता
का अभाव है तो वह न केवल आर्थिक अपव्यय का वरन् विद्यालय शिक्षा के पतन का कारण बन
जाती है । यदि हम अपने प्रदेश की संस्कृत
शिक्षक शिक्षा की स्थिति का अवलोकन करें तो हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि उसका
यथेष्ट विस्तार नहीं हुआ है ।
संस्कृत शिक्षक शिक्षा
में गुणवत्ता संबर्धन हेतु सुझाव—
1.
प्रशिक्षण-संस्थाओं में प्रयोग की
जाने वाली शिक्षण एवं मूल्याङ्कन की प्राचीन एवं परम्परागत विधियों के साथ-साथ
नवीनतम एवं प्रगतिशील विधियों का प्रयोग किया जाय ।
2.
प्रशिक्षण-संस्थाओं में शिक्षक-अभ्यास को महत्त्व दिया जाय और
छात्राध्यापकों के प्रत्येक पाठ का उचित प्रकार से निरीक्षण किया जाय ।
3.
वास्तव में संस्कृत शिक्षक शिक्षा में गुणवत्ता संबर्धन हेतु नये
अनुसन्धानों की आवश्यकता है— सर्वप्रथम सरकारी उच्च शिक्षण संस्थाओं में शोध हेतु
आवश्यकता सुविधाओं की उपलब्धता शासन स्तर से सुनिश्चित की जानी चाहिए और नवीन शोध
करने वालों को पुरस्कृत करना चाहिए । सरकार का यह कथन कि संसाधनों का अभाव है
अत्यन्त मिथ्या है । वास्तव में यदि देखा
जाय तो उच्च शिक्षा के संस्कृत शिक्षक सिक्षा में व्यय कम नहीं हो
रहे हैं , अपितु उनके व्यय का स्वरूप गलत है । सस्ती लोकप्रियता और सरकार में बनें
रहने के लिए अपनाये जा रहे मार्ग इसमें बाधक है ।
4.
प्रशिक्षण संस्थाओं में वर्कशाप , पुस्तकालय , प्रयोगशाला आदि की सुविधाओं
में पर्याप्त विस्तार किया जाय ।
उपसंहार -
एकमप्यक्षरं यस्तु गुरुः शिष्यं प्रबोधयेत् ।
पृथिव्यां नास्ति तद्रव्यं यद्दत्वा अनृणी भवेत् ।।
संस्कृत
साहित्य में गुरु की प्रशंसा इस प्रकार से की गयी है, शिक्षा गुरु के माध्यम से ही
दी जाती है और शिक्षा समाज का दर्पण होती
है , आधुनिक परिस्थिति को ध्यान में रखते हुये संस्कृत शिक्षकों की भूमिका
अत्यधिक महत्व पूर्ण प्रतीत होती है , अतः नैतिकता और सामाजिकता को सुरक्षित रखने के लिये संस्कृत निष्ठ आयोजन
अनिवार्य है ।