About Me

My photo
google
Agartala, Tripura, India
डॉ. जितेन्द्र: तिवारी संस्कृतभाषी, संस्कृतानुरागी Mob. 9039712018/7005746524
View my complete profile

कर्म-योग



तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् गीता 2.50
यदि किसी मनुष्य को किसी शास्त्र को जानने की इच्छा पहले से ही न हो तो वह उस शास्त्र के ज्ञान को पाने का अधिकारी नहीं हो सकता। ऐसे अधिकार रहित मनुष्य को उस शास्त्र की शिक्षा देना मानो चलनी में दूध दुहना है। शिष्य को तो उस शिक्षा से कुछ लाभ होता ही नहीं, परन्तु गुरु को भी निरर्थक श्रम करके समय नष्ट करना पड़ता है। जैमिनि और बादरायण के आरंभ में इसी कारण से अथातो धर्मजिज्ञासा और अथातो ब्रह्मजिज्ञासा कहा है। जैसे ब्रह्मोपदेश मुमुक्षुओं को और धर्मोपदेश धर्म जिज्ञासु को देना चाहिए, वैसे ही कर्म शास्त्रोपदेश उसी मनुष्य को देना चाहिए जिसे यह जानने की इच्छा या जिज्ञासा हो कि संसार में कर्म कैसे करना चाहिए। इसीलिए पहले प्रकरण में 'अथातो' कहकर, दूसरे प्रकरण में कर्मजिज्ञासा का स्वरूप और कर्मयोगशास्त्र का महत्त्व बताया है। जब तक पहले से इस बात का अनुभव न कर लिया जाए कि अमुक काम में अमुक रूकावट है, तब तक उस अड़चन से छुटकारा पाने की शिक्षा देने वाले शास्त्र का महत्त्व ध्यान में नहीं आता और महत्त्व को न जानने से केवल रटा हुआ शास्त्र समय पर ध्यान में भी नहीं रहता है। यही कारण है कि जो सदगुरु हैं वे पहले यह देखते हैं कि शिष्य के मन में जिज्ञासा है या नहीं, और यदि जिज्ञासा न हो तो वे पहले उसी को जागृत करने का प्रयत्न किया करते हैं।
गीता में कर्मयोग शास्त्र का विवेचन इसी पद्धति से किया गया है। जब अर्जुन के मन में यह शंका आई कि जिस लड़ाई में मेरे हाथ से पितृवध और गुरुवध होगा तथा जिसमें अपने सब बंधुओं का नाश हो जाएगा, उसमें शामिल होना उचित है या अनुचित; और जब वह युद्ध से पराड़्मुख होकर सन्यास लेने को तैयार हुआ और जब भगवान के इस सामान्य युक्तिवाद से भी उसके मन का समाधान नहीं हुआ कि ‘समय पर किए जाने वाले कर्म का त्याग करना मूर्खता और दुर्बलता का सूचक है। इससे तुमको स्वर्ग तो मिलेगा ही नहीं, उलटा दुष्कीर्ति अवश्य होगी।’ तब श्री भगवान ने पहले
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे
अर्थात् जिस बात का शोक नहीं करना चाहिए उसी का तो तू शोक कर रहा है और साथ-साथ ब्रह्मज्ञान की भी बड़ी बड़ी बातें छाँट रहा है, कहकर अर्जुन का कुछ थोड़ा सा उपहास किया और फिर उसको कर्म के ज्ञान का उपदेश दिया। अर्जुन की शंका कुछ निराधार नहीं थी। गत प्रकरण में यह दिखलाया है कि अच्छे अच्छे पंडितों को भी कभी-कभी, क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए?' यह प्रश्न चक्कर में डाल देता है। परन्तु कर्म-अकर्म की चिन्ता में अनेक अड़चनें आती हैं, इसलिए कर्म को छोड़ देना उचित नहीं है। विचारवान् पुरुषों को ऐसी युक्ति अर्थात 'योग' का स्वीकार करना चाहिए जिससे सांसारिक कर्मों का लोप तो होने न पाए और कर्माचरण करने वाला किसी पाप या बंधन में भी न फँसे यह कहकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को पहले यही उपदेश दिया है - तस्माद्योगाय युज्यस्व, अर्थात् तू भी इसी युक्ति को स्वीकार कर। यही 'योग' कर्मयोगशास्त्र है। 

Post a Comment

0 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.