सत्संग शब्द का अर्थ है -
सत का संग। हमारा मन, वचन और कर्म यदि सत्य के आधार पर संचालित हो, हमारा जीवन यदि सत्य से ओतप्रोत हो तो यह है, सत्संग।
सत्संग का एक विशेष अर्थ भी है। सत्संग अर्थात् सत का संग। सत्य क्या है? संत कबीर के शब्दों में — *सत् सोई जो बिनसै नाहीं* । जिसका कभी विनाश नहीं होता ऐसे त्रयकाल अबाधित तत्व को सत्य कहते हैं। वह अविनाशी तत्व क्या है? उत्तर होगा-- परमात्मा। वस्तुतः परमात्मा का संग उत्तम कोटि का सत्संग है।
किन्तु यह सत्संग होना आसान नहीं है। इसके पहले हमें साधु-संतों का संग करना पड़ता है। वे हमारी वृत्ति को परमात्मा से जोड़ते हैं और परमात्मा को पाने का यत्न बतलाते हैं। इसलिये व्यवहारिक रूप में सत्संग का अर्थ है, साधु-संतों, महापुरुषों का संग।
यदि हम सत्संग शब्द के भाव को और भी सरल रूप में समझना चाहें तो कहना पड़ेगा कि 'ऐसा संग जिससे हमारे मन के विचार पवित्र रहे, वह सत्संग है।
मनुष्य जीवन को दिशा देने में विचार ही प्रधान है। मन के विचार एक दिन वाणी के द्वारा निःसृत होते हैं। वाणी एक दिन कर्म में परिणत हो जाती है। कर्म से आदतें बनती हैं। हमारी आदतें हमारे व्यक्तित्व का निर्माण करती है और हमारा व्यक्तित्व ही हमारे भविष्य का जन्मदाता है।
अच्छी संगति से हमारे विचार पवित्र होंगे। विचार पवित्र होने से वाणी पवित्र होगी। वाणी पवित्र होने से हमारे कर्म पवित्र होंगे। कर्म पवित्र होने से आदतें पवित्र होंगी। आदतें पवित्र होने से हमारा व्यक्तित्व पवित्र और उत्तम होगा और उत्तम व्यक्तित्व से ही हमारे उज्ज्वल भविष्य का निर्माण होगा। यही सत्संग का उद्देश्य है। इसके विपरीत यदि मन के विचार अपवित्र हों, दूषित हों तो वाणी, कर्म, आदतें, व्यक्तित्व; सभी प्रदूषित हो जाएँगी और भविष्य अंधकार हो जाएगा।
बात रही सत्संगी होने की तो जिन्होंने जीवन में सत्संग को अपना लिया है या जो सत्संग करते हैं वे सत्संगी कहलाते हैं।।