वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये ।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ।।
भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि हरतालिका के नाम से शिव-पार्वती भक्तों में लोकप्रिय है। यह पर्व शिव-पार्वती के अखण्ड सम्बन्ध का प्रतीक है। समाज में पति और पत्नी के बीच जो सम्बन्ध है, वह क्या है ? क्या इनके मध्य कोई ऐसी डोर भी है, जो हमको एक शांत और मंगलकारी परिवार की ओर ले जाती है ? दूसरा प्रश्न - परिवार तो अन्य देवों के भी हैं, लेकिन सनातन संस्कृति में शिव परिवार ही क्यों आदर्श बना ?
भगवान् शंकर और पार्वती के मिलन के कई प्रसंग हमारे लिए आदर्श हैं। शिव पुराण से लेकर श्रीरामचरितमानस तक अनेक ग्रंथों में शिव और पार्वती को श्रद्धा और विश्वास की संज्ञा दी गई है। श्रद्धा पार्वती जी हैं और विश्वास साक्षात् भगवान शंकर हैं। जब एक-दूसरे के प्रति श्रद्धा और विश्वास होगा, तो वह आदर्श परिवार होगा। जहां इनमें से किसी एक की भी कमी होगी, परिवार संकट और क्लेश में घिर जाएगा। शिव प्रसंग में दो स्त्री आती हैं। एक सती और दूसरी पार्वती। हम पार्वती के रूप में स्त्री को अंगीकार करते हैं। क्यों ? पार्वती जी को ही हमने अखण्ड सौभाग्य की अधिष्ठात्री माना है, क्योंकि वहां समर्पण है। सती प्रसंग में अपनी जिद है, लेकिन पार्वती के रूप में प्रत्येक स्त्री सौभाग्यवती है। हरतालिका तीज का प्रसंग भी इसी से जुड़ा है।
पूर्वजन्म में सती होने के बाद देवी सती ने अगले जन्म में पार्वती के रूप में अवतरण किया। भगवान् शंकर को पाने के लिए घोर तप किया। अन्न-जल त्याग दिया। उनका शरीर पर्ण के समान हो गया। यहीं से देवी का नाम अपर्णा पड़ा। भूख और प्यास को सहन करते हुए देवी ने केवल एक ही प्रण किया कि वह शंकर जी को ही वरण करेंगी। तप तो पूरा हुआ, लेकिन भगवान् शंकर कहां मानने वाले थे। कथा आती है कि तारकासुर के संहार के लिए शंकर जी ने पार्वती से विवाह किया, क्योंकि तारकासुर को वरदान प्राप्त था कि शंकर जी के पुत्र (गर्भ से उत्पन्न) द्वारा ही वह मृत्यु को प्राप्त हो सकता है। अंततोगत्वा कार्तिकेय के रूप में पार्वती जी ने पुत्र को जन्म दिया और तब तारकासुर से मुक्ति मिली।
वस्तुतः हरतालिका तीज इच्छित वर की कामना का व्रत है। इच्छित वर की कामना को गलत नहीं माना गया है। अपितु इसके व्रत भी हैं। हरतालिका तीज इसमें से एक महत्वपूर्ण व्रत है। कालान्तर में सौभाग्यवती स्त्रियां भी इस व्रत को करने लगीं। पार्वती जी की तरह निर्जल रहने लगीं। मुख्य उद्देश्य एक ही है शिव ही शिव हो, अर्थात् कल्याण। परिवार में भी और दाम्पत्य जीवन में भी केवल कल्याण की ही कामना है ।
शिव कल्याण के देव हैं और पार्वती जी कल्याणी। पारिवारिक और वैवाहिक सभी संस्कारों की नींव शिव परिवार से ही पड़ी। यह सुखी और आदर्श परिवार है। इसमें कार्तिकेय के रूप में गर्भोत्पन्न शिशु भी हैं, तो मानस पुत्र के रूप में गणेश जी भी हैं। अशुभता और शुभता का संकेत देने वाला नन्दी भी है तो श्रद्धा के रूप में साक्षात् पार्वती जी भी हैं। इन सभी का विश्वास शिव में है। शिव का विश्वास इनमें है। इसलिए शिव परिवार सुखी परिवार है। जिस तरह माता पार्वती का सुहाग अक्षत और अखण्ड है, उसी तरह व्रत को करने वालों का भी हो, यही कामना सनातन है। यही हरतालिका है। हम सभी परिवार के लिए कुछ न कुछ समर्पण करते हैं। अन्न-जल का त्याग इसी संकल्प का अंग है। सब सुखी हों, सभी का परिवार श्रद्धा व विश्वास के साथ फूले-फले, यही कामना हमको और हमारी संस्कृति को पल्लवित करती है।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत् ।।
इति शम्
डॉ. जितेन्द्र तिवारी